एक और जन्म-दिन (व्यंग्य)

मेरी जन्म-तीथि जन्ममास के पहलेवाले महीने में छपी थी। अगस्त के एक दिन सुबह कमरे में घुसा तो देखा, एक बंधु बैठे हैं और कुछ सकुचा-से रहे हैं। और वक़्त मिलते थे तो बड़ी बेतक़ल्लूफ़ी से हँसी-मज़ाक करते थे। उस दिन बहुत गंभीर बैठे थे, जैसे कोई बुरी खबर लेकर आए हों। वे उठे, झोले में से गुलदस्ता निकाला और मेरी तरफ बढ़े। मैंने पूछा, 'यह क्या मामला है!' वे बोले, 'आपका जन्म-दिन है न!' मैंने कहा, 'अच्छा, मुझे ध्यान ही नहीं था ।' उन्होने मन में कहा होगा - पाखंडी! रातभर उत्सुकता में सोया नहीं होगा। कहता है, ध्यान नहीं था।

उनका गुलदस्ता देने का शायद पहला ही मौका था और मेरा लेने का । दोनों से नहीं बन रहा था । दोनों को अटपटा सा लग रहा था । बबूल की डाल को तो काँटे बचाकर लिया जा सकता है, मगर फूलों को बचाकर गुलदस्ता कैसे लिया जाए? इसके लिए अभ्यास चाहिए।

कुछ लोग इस अदा से गुलदस्ता लेते हैं, जैसे माँ के पेट से गुलदस्ता लेते रहें हों । एक नेता के बेटे को 'रेडीमेड' नेता होना था । वह सत्तरह - अठारह साल की उम्र में ही बूढ़ों की तरह गुलदस्ता लेने लगा था । कुछ मैनें ऐसे भी देखे हैं, जो गुलदस्ता इस तरह से लेते हैं जैसे कुंजड़े की टोकरी से गोभी चुरा रहे हों । एक नेता गुलदस्ता ऐसे पकड़ते हैं, जैसे लट्ठ पकड़े हों । एक को मैने हथेलियाँ खोलकर कथा के प्रसाद की तरह गुलदस्ता लेते देखा । एक और हैं जो गुलदस्ता लेकर उसे नाक में घुसेड़ने की कोशिश करते हैं। अभी तक वे सफल नहीं हुए पर नथउने चौड़े ज़रूर हो रहे हैं। ईश्वर ने चाहा और उन्हें गुलदस्ता देने वेल बने रहें तो मरने के पहले वे ज़रूर गुलदस्ते को नाक में घुसेड लेंगे।

हम दोनों नौसीखियों की अदाकारी शुरू हुई । दोनो मुस्कुराए । उन्होने एक पाँव आगे बढ़ाया तो मैनें भी बढ़ा दिया । मैं झुका तो वे भी झुक गये । उन्होने घुटना मोड़ा तो मैने भी मोड़ लिया । मैंने गुलदस्ता ले लिया और हम दोनों बड़ी देर तक हें-हें-हें-हें करते रहें । उम्मीद है, अगले साल हम दोनों बेहतर अदाकारी करेंगे ।

वे चले गये, पर मेरे मन में आग लगा गए । दिन भर धड़कनों में गुज़रा । नज़र सड़क पे लगी रही । हर राहगीर को मैं बड़ी लालसा से देखता की यह शुभकामना देने आ रहा है । वह आगे बढ़ जाता, तो सोचता, लौटकर आएगा । पोस्टमैन और तारवाले की राह देखता रहा । मगर शाम हो गयी और कोई नही आया । गुलदस्ते का अपशकुन हो गया था । कुल एक तार और तीन चिट्ठियाँ आईं । जन्म-दिन को 'सीरियसली' नहीं लिया गया ।

हरिशंकर परसाई

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