कामायनी : जयशंकर प्रसाद
कामायनी : जयशंकर प्रसाद चिंता सर्ग भाग-1 हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष, भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह । नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन । दूर दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदय समान, नीरवता-सी शिला-चरण से टकराता फिरता पवमान । तरूण तपस्वी-सा वह बैठा साधन करता सुर-श्मशान, नीचे प्रलय सिंधु लहरों का होता था सकरुण अवसान। उसी तपस्वी-से लंबे थे देवदारू दो चार खड़े, हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर बनकर ठिठुरे रहे अड़े। अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार, स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का होता था जिनमें संचार। चिंता-कातर वदन हो रहा पौरूष जिसमें ओत-प्रोत, उधर उपेक्षामय यौवन का बहता भीतर मधुमय स्रोत। बँधी महावट से नौका थी सूखे में अब पड़ी रही, उतर चला था वह जल-प्लावन, और निकलने लगी मही। निकल रही थी मर्म वेदना करुणा विकल कहानी सी, वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी-सी। "ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की व्याली, ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कंप-सी मतवाली। हे अभाव की चपल बालिके,